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अ॒ꣳशुश्च॑ मे र॒श्मिश्च॒ मेऽदा॑भ्यश्च॒ मेऽधि॑पतिश्च मऽउपा॒शुश्च॑ मेऽन्तर्या॒मश्च॑ मऽऐन्द्रवाय॒वश्च॑ मे मैत्रावरु॒णश्च॑ मऽआश्वि॒नश्च॑ मे प्रतिप्र॒स्थान॑श्च मे शु॒क्रश्च॑ मे म॒न्थी च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पताम् ॥१९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ꣳशुः। च॒। मे॒। र॒श्मिः। च॒। मे॒। अदा॑भ्यः। च॒। मे॒। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। मे॒। उ॒पा॒अ॒शुरित्यु॑पऽ अ॒ꣳशुः। च॒। मे॒। अ॒न्त॒र्या॒म इत्य॑न्तःऽया॒मः। च॒। मे॒। ऐ॒न्द्र॒वा॒य॒वः। च॒। मे॒। मै॒त्रा॒व॒रु॒णः। च॒। मे॒। आ॒श्वि॒नः। च॒। मे॒। प्र॒ति॒प्र॒स्थान॒ इति॑ प्रतिऽप्र॒स्थानः॑। च॒। मे॒। शु॒क्रः। च॒। मे॒। म॒न्थी। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:19


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मे) मेरा (अंशु) व्याप्तिवाला सूर्य (च) और उसका प्रताप (मे) मेरा (रश्मिः) भोजन करने का व्यवहार (च) और अनेक प्रकार का भोजन (मे) मेरा (अदाभ्यः) विनाश रहित (च) और रक्षा करनेवाला (मे) मेरा (अधिपतिः) स्वामी (च) और जिसमें स्थिर हो वह स्थान (मे) मेरा (उपांशुः) मन में जप का करना (च) और एकान्त का विचार (मे) मेरा (अन्तर्यामः) मध्य में जानेवाला पवन (च) और बल (मे) मेरा (ऐन्द्रवायवः) बिजुली और पवन के साथ सम्बन्ध करनेवाला काम (च) और जल (मे) मेरा (मैत्रावरुणः) प्राण और उदान के साथ चलनेहारा वायु (च) और व्यान पवन (मे) मेरा (आश्विनः) सूर्य चन्द्रमा के बीच में रहनेवाला तेज (च) और प्रभाव (मे) मेरा (प्रतिस्थापनः) चलने-चलने के प्रति वर्त्ताव रखनेवाला (च) भ्रमण (मे) मेरा (शुक्रः) शुद्धस्वरूप (च) और वीर्य करनेवाला तथा (मे) मेरा (मन्थी) विलोने के स्वभाववाला (च) और दूध वा काष्ठ आदि ये सब पदार्थ (यज्ञेन) अग्नि के उपयोग से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सूर्यप्रकाशादिकों से भी उपकारों को लेवें तो विद्वान् होकर क्रिया की चतुराई को क्यों न पावें ॥१९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अंशुः) व्याप्तिमान् सूर्यः। अत्राशूङ् व्याप्तावित्यस्माद् बाहुलकेनौणादिक उः प्रत्ययो नुमागमश्च (च) प्रतापः (मे) (रश्मिः) येनाश्नाति सः। अत्राश भोजने धातोर्बाहुलकान् मिः प्रत्ययो रशादेशश्च ॥ (उणा०४.४७) (च) विविधम् (मे) (अदाभ्यः) उपक्षयरहितः (च) रक्षकः (मे) (अधिपतिः) अधिष्ठाता (च) अध्यस्तम् (मे) (उपांशुः) उपगता अंशवो यत्र स उपांशुर्जपः (च) रहस्यविचारः (मे) (अन्तर्यामः) योऽन्तर्मध्ये याति स वायुः (च) बलम् (मे) (ऐन्द्रवायवः) इन्द्रो विद्युद्वायुश्च तयोरयं सम्बन्धी (च) जलम् (मे) (मैत्रावरुणः) प्राणोदानयोरयं सहचारी (च) व्यानः (मे) (आश्विनः) सूर्याचन्द्रमसोरयं मध्यवर्त्ती (च) प्रभावः (मे) (प्रतिप्रस्थानः) यः प्रस्थानं गमनं प्रति वर्त्तते सः (च) भ्रमणम् (मे) (शुक्रः) शुद्धस्वरूपः (च) वीर्यकरः (मे) (मन्थी) मथितुं शीलः (च) पयः काष्ठादिः (मे) (यज्ञेन) अग्निपदार्थोपयोगेन (कल्पन्ताम्) ॥१९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मेंऽशुश्च मे रश्मिश्च मेऽदाभ्यश्च मेऽधिपतिश्च म उपांशुश्च मेऽन्तर्यामश्च म ऐन्द्रवायवश्च मे मैत्रावरुणश्च म आश्विनश्च मे प्रतिप्रस्थानश्च मे शुक्रश्च मे मन्थी च यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - यदि मनुष्याः सूर्यप्रकाशदिभ्योऽप्युपकारं गृह्णीयुस्तर्हि विद्वांसो भूत्वा क्रियाकौशलं कुतो न प्राप्नुयुः ॥१९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सूर्य प्रकाश इत्यादींचा उपयोग करून घेतात ती विद्वान बनतात अशी माणसे कर्म करण्यात चतुर का बरे होणार नाहीत? (अर्थात् ती निश्चितच चतुर बनतील) .